बेला पत्रिका में छपी कविता
सिया की पीर\
( १ )
लालिमा भोर की रंजित ह्रदय कर जाती
नभ से सिन्धु जल भर बरसा कर जाती
शुचि हर घर का आँगन बुहार कर जाती
उल्लासित नगरी में राम-राज्य कहलाती
(२ )
सूर्य रधुवंश का भाल सहला कर जाता
मन मयूर सा ताल मिला कर जाता
स्वप्न हंस सिय का हिय बहला जाता
नव-कोंपल का बोध सिय को कर जाता
(३ )
किसने ! सुयोग पर घात लगा उत्पात किया
हाय ! ईश्वर,मृत्यु सा वेदना का प्रहार किया
राम ने सीता को निष्कासित जिस घडी किया
मौन क्रन्दन कर हृदय ने सब कुछ सह लिया
( ४ )
आह! विधि, सीता हरण रावण ने क्यों किया
रावण पुत्री सम सिया को राहू ने ग्रस लिया
अम्बर ने मस्तक सिया को देख झुका लिया
धरती ने वरदहस्त सिया के शीश पर दिया
(५ )
कौन से समाज के लिए रधुवर तय किया
सिय के आचरण पर मौन धारण तुमने किया
राम के ह्दय पर वज्रपात कर आरोप मढ़ दिया
कला-कौशल से राम-सिय का सुख-चैन हर लिया
(६ )
सबल जानकी अनाथ बैदेही धरती की पुत्री हुई
लक्ष्मण धरणी-धीर पुत्र संग राम से विदा हुई
चीन्ही धरती पर वाल्मिक आश्रम में रह गई
स्नेह से पोषित वल्लरी प्रमुदित प्रसन्न हुई
(७ )
धूप-दीप नवेध से घर आँगन में बरसाती रही
कुटी में योगिनी ह्दय में राम लिखती रही
आस में लव-कुश के अब माता सृष्टि हुई
विकल पीर में जल नयनों से ढलकाती रही
(८ )
साँझ की बेला मुदित हो तमस पर मुस्काती रही
ज्योति दीप जलकर निशा-रात्रि को बहलाती ही रही
कर्म कि बात जन्मों तक साध-कर वचन दुहराती रही
अनकही सी पीर सह कर प्रीत का उपवन बनाती रही
(९ )
सिय के हिय में अग्नि ज्वाला समा भूमि उर्वरा रही
बिन जल मीन ज्यूँ पिया की आस में तड़पती रही
राम जल व्योम से ओम सार्थक प्रेरणा मिलती रही
सीता ही शक्ति उर्वरा जगदम्बिका प्राण-तुल्य रही
(१० )
शेष कितनी वीरांगनाए ! भारत को धन्य करती रही
अर्पित कर चूकी निज स्वार्थ को स्वयं अपराजित रही
पीर सह सीता रही बिना राम कि जानकी कहलाती रही
कर्म से धर्म का उद्घोष कर "अरु" हिय जानती ही रही
आराधना राय "अरु"
( १ )
लालिमा भोर की रंजित ह्रदय कर जाती
नभ से सिन्धु जल भर बरसा कर जाती
शुचि हर घर का आँगन बुहार कर जाती
उल्लासित नगरी में राम-राज्य कहलाती
(२ )
सूर्य रधुवंश का भाल सहला कर जाता
मन मयूर सा ताल मिला कर जाता
स्वप्न हंस सिय का हिय बहला जाता
नव-कोंपल का बोध सिय को कर जाता
(३ )
किसने ! सुयोग पर घात लगा उत्पात किया
हाय ! ईश्वर,मृत्यु सा वेदना का प्रहार किया
राम ने सीता को निष्कासित जिस घडी किया
मौन क्रन्दन कर हृदय ने सब कुछ सह लिया
( ४ )
आह! विधि, सीता हरण रावण ने क्यों किया
रावण पुत्री सम सिया को राहू ने ग्रस लिया
अम्बर ने मस्तक सिया को देख झुका लिया
धरती ने वरदहस्त सिया के शीश पर दिया
(५ )
कौन से समाज के लिए रधुवर तय किया
सिय के आचरण पर मौन धारण तुमने किया
राम के ह्दय पर वज्रपात कर आरोप मढ़ दिया
कला-कौशल से राम-सिय का सुख-चैन हर लिया
(६ )
सबल जानकी अनाथ बैदेही धरती की पुत्री हुई
लक्ष्मण धरणी-धीर पुत्र संग राम से विदा हुई
चीन्ही धरती पर वाल्मिक आश्रम में रह गई
स्नेह से पोषित वल्लरी प्रमुदित प्रसन्न हुई
(७ )
धूप-दीप नवेध से घर आँगन में बरसाती रही
कुटी में योगिनी ह्दय में राम लिखती रही
आस में लव-कुश के अब माता सृष्टि हुई
विकल पीर में जल नयनों से ढलकाती रही
(८ )
साँझ की बेला मुदित हो तमस पर मुस्काती रही
ज्योति दीप जलकर निशा-रात्रि को बहलाती ही रही
कर्म कि बात जन्मों तक साध-कर वचन दुहराती रही
अनकही सी पीर सह कर प्रीत का उपवन बनाती रही
(९ )
सिय के हिय में अग्नि ज्वाला समा भूमि उर्वरा रही
बिन जल मीन ज्यूँ पिया की आस में तड़पती रही
राम जल व्योम से ओम सार्थक प्रेरणा मिलती रही
सीता ही शक्ति उर्वरा जगदम्बिका प्राण-तुल्य रही
(१० )
शेष कितनी वीरांगनाए ! भारत को धन्य करती रही
अर्पित कर चूकी निज स्वार्थ को स्वयं अपराजित रही
पीर सह सीता रही बिना राम कि जानकी कहलाती रही
कर्म से धर्म का उद्घोष कर "अरु" हिय जानती ही रही
आराधना राय "अरु"
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